Tuesday, 10 March 2015

कविता

कमरे में सुबह की धूप थी
गलियारे में सूरज बैठा था
वो धूप सेकती बैठी
दिसम्बर की हल्की धूप थीं
जाड़ा कड़ाके का 
हवा का रुख बदला था
शून्य सा मुख
सलवटे स्वर की उभरी थी
मीठी और दुसह थी ।
उभरा कोई विरही गीत
मन मीत की याद ठहरी
आसमान साफ था
कुहासे की तैयारी ।
शान्ति पुरोहित

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